|| श्लोक : १ ||
धृतराष्ट्र उवाच |
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय || १ ||
अनुवाद
धृतराष्ट्र बोले :
हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें एकत्रित, युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया ?
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : २ ||
सञ्जय उवाच ।
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् || २ ||
अनुवाद
संजय बोले :
उस समय राजा दुर्योधनने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवोंकी सेनाको देखकर और द्रोणाचार्यके पास जाकर यह वचन कहा।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ३ ||
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता || ३ ||
अनुवाद
हे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नद्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रोंकी इस बड़ी भारी सेनाको देखिये।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ४, ५, ६ ||
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ: || ४ ||
धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान् |
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गव: || ५ ||
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् |
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा: || ६ ||
अनुवाद
इस सेनामें बड़े-बड़े धनुषोंवाले तथा युद्धमें भीम और अर्जुनके समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान् काशिराज, पुरुजित् कुन्तिभोज और मनुष्योंमें श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदीके पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ७ ||
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम |
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते || ७ ||
अनुवाद
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्षमें भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिये । आपकी जानकारीके लिये मेरी सेनाके जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ८ ||
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जय: |
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च || ८ ||
अनुवाद
आप- द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्तका पुत्र भूरिश्रवा।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ९ ||
अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता: |
नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा: || ९ ||
अनुवाद
और भी मेरे लिये जीवनकी आशा त्याग देनेवाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित और सब-के-सब युद्धमें चतुर हैं।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : १० ||
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् |
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् || १० ||
अनुवाद
भीष्मपितामहद्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकारसे अजेय है और भीमद्वारा रक्षित इन लोगोंकी यह सेना जीतनेमें सुगम है।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ११ ||
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिता: |
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्त: सर्व एव हि || ११ ||
अनुवाद
इसलिये सब मोर्चोंपर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आपलोग सभी निःसन्देह भीष्मपितामहकी ही सब ओरसे रक्षा करें।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : १२ ||
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्ध: पितामह: |
सिंहनादं विनद्योच्चै: शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् || १२ ||
अनुवाद
कौरवोंमें वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्मने उस दुर्योधनके हृदयमें हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वरसे सिंहकी दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : १३ ||
तत: शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा: |
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् || १३ ||
अनुवाद
इसके पश्चात् शंख और नगारे तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे । उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : १४ ||
तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधव: पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतु: || १४ ||
अनुवाद
इसके अनन्तर सफेद घोड़ोंसे युक्त उत्तम रथमें बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुनने भी अलौकिक शंख बजाये।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : १५ ||
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय: |
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदर: || १५ ||
अनुवाद
श्रीकृष्ण महाराजने पाञ्चजन्यनामक, अर्जुनने देवदत्तनामक और भयानक कर्मवाले भीमसेनने पौण्ड्रनामक महाशंख बजाया।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : १६, १७, १८ ||
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: |
नकुल: सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ || १६ ||
काश्यश्च परमेष्वास: शिखण्डी च महारथ: |
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजित: || १७ ||
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश: पृथिवीपते |
सौभद्रश्च महाबाहु: शङ्खान्दध्मु: पृथक् पृथक् || १८ ||
अनुवाद
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने अनन्तविजयनामक और नकुल तथा सहदेवने सुघोष और मणिपुष्पकनामक शंख बजाये। श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदीके पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु – इन सभीने, हे राजन् ! सब ओरसे अलग-अलग शंख बजाये।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : १९ ||
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् |
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन् || १९ ||
अनुवाद
और उस भयानक शब्दने आकाश और पृथ्वीको भी गुँजाते हुए धार्तराष्ट्रोंके अर्थात् आपके पक्षवालोंके हृदय विदीर्ण कर दिये।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : २० ||
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वज: |
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डव: || २० ||
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते |
अनुवाद
उस समय पाण्डुपुत्र अर्जुन ने हनुमानजी के प्रतीक चिन्ह वाले रथ पर आरूढ़ होकर धनुष उठाया और बाण चलाने के लिए तैयार हो गया। धृतराष्ट्र के पुत्रों को व्यूह में सुसज्जित देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से यह वचन कहे।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : २१, २२ ||
अर्जुन उवाच |
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत || २१ ||
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् |
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे || २२ ||
अनुवाद
अर्जुन ने कहा:
हे अच्युत, कृपया मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच खड़ा कर दें ताकि मैं यहाँ उपस्थित योद्धाओं को देख सकूँ और जिनके साथ मुझे इस महान शस्त्र युद्ध में लड़ना है।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : २३ ||
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागता: |
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षव: || २३ ||
अनुवाद
दुर्बुद्धि दुर्योधनका युद्धमें हित चाहनेवाले जो- जो ये राजा लोग इस सेनामें आये हैं, इन युद्ध करनेवालों को मैं देखूँगा।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : २४ ||
सञ्जय उवाच |
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् || २४ ||
अनुवाद
संजय बोले :
हे भरतवंशी, अर्जुन द्वारा इस प्रकार संबोधित किए जाने पर भगवान कृष्ण ने उस भव्य रथ को दोनों पक्षों की सेनाओं के बीच में खड़ा कर दिया।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : २५ ||
भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति || २५ ||
अनुवाद
भीष्म, द्रोण तथा अन्य सभी राजाओं की उपस्थिति में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि हे पार्थ ! यहाँ पर एकत्रित समस्त कुरुओं को देखो।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : २६ ||
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थ: पितृ नथ पितामहान् |
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृ न्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा || २६ ||
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि |
अनुवाद
दोनों पक्षों की सेनाओं के बीच में खड़े होकर अर्जुन ने अपने पिता तुल्य चाचा, दादा, आचार्य, मामा, भाई, पुत्र, पौत्र, मित्र और ससुराल वालों के साथ-साथ शुभचिंतकों को देखा।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : २७ ||
तान्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान् || २७ ||
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् |
अनुवाद
जब कुंतीपुत्र अर्जुन ने विभिन्न प्रकार के मित्रों और रिश्तेदारों को देखा, तो वह करुणा से अभिभूत हो गया और इस प्रकार कहने लगा।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : २८, २९ ||
अर्जुन उवाच |
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् || २८ ||
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति |
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते || २९ ||
अनुवाद
अर्जुन बोले:
हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्रमें डटे हुए युद्धके अभिलाषी इस स्वजनसमुदायको देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीरमें कम्प एवं रोमाञ्च हो रहा है।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ३० ||
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चै व परिदह्यते |
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: || ३० ||
अनुवाद
हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित – सा हो रहा है; इसलिये मैं खड़ा रहनेको भी समर्थ नहीं हूँ।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ३१ ||
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव |
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे || ३१ ||
अनुवाद
हे केशव ! मैं लक्षणोंको भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्धमें स्वजनसमुदायको मारकर कल्याण भी नहीं देखता।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ३२, ३३ ||
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च |
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा || ३२ ||
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च |
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च || ३३ ||
अनुवाद
हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखोंको ही । हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्यसे क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगोंसे और जीवनसे भी क्या लाभ है ? हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवनकी आशाको त्यागकर युद्धमें खड़े हैं।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ३४, ३५ ||
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा: |
मातुला: श्वशुरा: पौत्रा: श्याला: सम्बन्धिनस्तथा || ३४ ||
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन |
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते || ३५ ||
अनुवाद
गुरुजन, ताऊ – चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं। मधुसूदन ! मुझे मारनेपर भी अथवा तीनों लोकोंके राज्यके लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वीके लिये तो कहना ही क्या है ?
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ३६, ३७ ||
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन |
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन: || ३६ ||
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् |
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव || ३७ ||
अनुवाद
हे जनार्दन ! धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियोंको मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारनेके लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्बको मारकर हम कैसे सुखी होंगे ?
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ३८, ३९ ||
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: |
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् || ३८ ||
कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम् |
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन || ३९ ||
अनुवाद
यद्यपि लोभसे भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुलके नाशसे उत्पन्न दोषको और मित्रोंसे विरोध करनेमें पापको नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुलके नाशसे उत्पन्न दोषको जाननेवाले हमलोगोंको इस पापसे हटनेके लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिये ?
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ४० ||
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना: |
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत || ४० ||
अनुवाद
कुलके नाशसे सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्मके नाश हो जानेपर सम्पूर्ण कुलमें पाप भी बहुत फैल जाता है।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ४१ ||
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय: |
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्कर: || ४१ ||
अनुवाद
हे कृष्ण ! पापके अधिक बढ़ जानेसे कुलकी स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियोंके दूषित हो जानेपर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ४२ ||
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च |
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया: || ४२ ||
अनुवाद
वर्णसंकर कुलघातियोंको और कुलको नरकमें ले जानेके लिये ही होता है । लुप्त हुई पिण्ड और जलकी क्रियावाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पणसे वञ्चित इनके पितरलोग भी अधोगतिको प्राप्त होते हैं।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ४३ ||
दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकै: |
उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: || ४३ ||
अनुवाद
इन वर्णसंकरकारक दोषोंसे कुलघातियोंके सनातन कुल – धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ४४ ||
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन |
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम || ४४ ||
अनुवाद
हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्योंका अनिश्चित कालतक नरकमें वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ४५, ४६ ||
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् |
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता: || ४५ ||
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणय: |
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् || ४६ ||
अनुवाद
हा ! शोक ! हमलोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करनेको तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुखके लोभसे स्वजनोंको मारनेके लिये उद्यत हो गये हैं। यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करनेवालेको शस्त्र हाथमें लिये हुए धृतराष्ट्रके पुत्र रणमें मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा।
♣ ♣ ♣
|| श्लोक : ४७ ||
सञ्जय उवाच |
एवमुक्त्वार्जुन: सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् |
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस: || ४७ ||
अनुवाद
संजय बोले :
रणभूमिमें शोकसे उद्विग्न मनवाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुषको त्यागकर रथके पिछले भागमें बैठ गये।